घर दुवार खेत खलिहान
खर पतवार डेहरी धान
इ सबका पूरा हिसाब
मझली चाची के पास
उनके काले रंग से किसी ने प्यार नहीं किया
हमारे सुंदर गोरे चाचा ने भी नहीं
कभी कभार चाचा किसी के हाथ
भिजवा देते पावडर साबुन तेल
चाची उतने में अघा जाती
बड़े घर परिवार का चौका बर्तन करतीं
चाची चूक जाती ...लेकिन दरवाजे के दरार से
चाचा का बिस्तर निहारतीं
किसी भी आहट पर कलेजा थाम वहीं बैठ जातीं
नैहर को याद कर गीली लकड़ियों के साथ सिसकतीं
समय बीत गया चाची अब बूढी हो गई हैं
पर जवान दिनों की उन उदास रातों
का एक एक पहर उनकी उँगलियों में थरथराता है
मेला जाने की चाह ...चुड़िहारिन से भर हाथ चूड़ी
शहर में सनीमा ...चाचा से बात करना
सुंदर कनिया का खिताब...
चाची घर से समवृद्ध है ...पर आज भी
सुनसान है यादों का आँगन
खाली है आस की डेहरी
बेहिसाब तन्हाई के वे दिन
उनकी आँखों से बहते हैं
हम बच्चों के सामने आज भी रोती चाची बड़ी कातर हो कह देती हैं
हमरा के केहू ना प्यार कईलस ...करिया रहनी ना...